Sunday, November 24, 2024

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अविज्ञाय नरो धर्मं दुःखमायाति याति च । मनुष्य जन्म साफल्यं केवलं धर्मसाधनम्     ॥     अविज्ञाय नरो धर्मं दुःखमायाति याति च । मनुष्य जन्म साफल्यं केवलं धर्मसाधनम्     ॥     अविज्ञाय नरो धर्मं दुःखमायाति याति च । मनुष्य जन्म साफल्यं केवलं धर्मसाधनम् ॥

समस्त जीवधारियों का जीवन उनके पर्यावरण की ही उपज होता है । अतः हमारे तन-मन की रचना, शक्ति, सामर्थ्य और विशेषताएँ उस संपूर्ण पर्यावरण से ही नियंत्रित होती हैं, उसी में वे पनपती हैं और विकास करती हैं । वस्तुतः जीवन और पर्यावरण एक-दूसरे से इतने जुड़े हुए हैं कि दोनों का सह-अस्तित्व बहुत आवश्यक है। प्रकृति मानव की सहचारी है। प्रकृति स्वभावतः संतुलित पर्यावरण के द्वारा मानव को स्वस्थ जीवन प्रदान करती है। हमारे ऋषि-मुनि प्रकृति की सुरक्षा और विकास के लिए प्रतिबद्ध थे। यज्ञ द्वारा वायु प्रदूषण को समाप्त करके पर्यावरण को शुद्ध किए जाने की वैज्ञानिक विधि से विज्ञ थे। मानव प्रत्येक प्रकार के क्रियाकलापों के लिए पर्यावरण पर निर्भर है। मानव एक कलाकार के रूप में पर्यावरण द्वारा प्रदत्त रंगमंच (Stage) पर कार्य करता है।आज से ही नहीं बल्कि प्राचीन समय से हमारे देश में पर्यावरण का बहुत महत्व रहा है, क्योंकि प्रकृति का संरक्षण करना मतलब उसका पूजन करने के समान होता है। हमारे देश में पर्वत, नदी, वायु, आग, ग्रह नक्षत्र,पेड़ पौधे यह सभी कहीं ना कहीं मानव के साथ जुड़े हुए हैं। पर्यावरणीय मुद्दे महत्वपूर्ण है क्योंकि उनके समाधान के बिना स्थिति बहुत भयावह होगी। यदि पर्यावरणीय समस्याओं को हल नहीं किया गया तो यह पृथ्वी भावी पीढ़ी के रहने योग्य नहीं रहेगी। आज लोगों की और इस ग्रह की आवश्यकता एकाकार हो गई है। प्रकृति के सानिध्य का सुख समझें। अपने आसपास छोटे पौधें हो या बड़े वृक्ष लगाएं। धरती की हरियाली बढ़ाने के लिए कृतसंकल्प हो तथा लगे हुए पेड़-पौधों का अस्तित्व बनाए रखने का प्रण लें और सहयोग करें।

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